चाहना Poem by Vibhor Jain

चाहना

जिसकी चाहना की, वो हासिल किया।
ये मैने क्या किया।
नासमझ था, मैने गलत राह चुनी।
सफर तो तय कर लिया, पर मंज़िल ना मिली।
अब सोचता हूं के वापिस वक़्त मैं जा सकूं। कुछ फैसले फिर से कर सकूं। शायद इस बार असल और नकल का भेद कर सकूं। कुछ तो बदल सकूं। जैसे लिखकर कलम सेे, मिटाकर, फिर से लिखते हैं।
वो ज़माना क्यों वापिस नहीं आता।
जैसे रोज़ सवेरा होता है। जैसे हर साल दीवाली आती है।
लगता है जैसे सब ठीक कर पाता । सच कहूं तो जैसे जैसे उम्र बढ़ती है, जीना और भी मुश्किल लगता है।
अब चुनौतियों का सामना नहीं होता, अब मैं खुश नहीं रहता। अब मुझे रोना भी नहीं आता। अब मैं बस रहना ही नहीं चाहता।

Wednesday, June 5, 2019
Topic(s) of this poem: acceptance,wish
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