क्या करूँ उस पगली का, जिसके लिए आहे भरता हूं?
पाने की दिल मे आस नही, पर क्यों खोने से डरता हूँ?
थाह नही जज्बातों का, बातों से मन भरता नही।
दिल मे चुभती हर एक शब्द, फिर भी बातें क्यों करता हूं?
वो एक परी पक्का शहरी, बड़े ख्वाबो में खोयी रहती हैं।
पर मैं तो एक बंजारा हूं, उसपे इतना क्यों मरता हूं?
दिल की माने तो इसका क्या, हर बार फिसलता रहता है।
पर अरसो से एक ही लम्हो में, क्यो बार बार गुज़रता हूं?
क्या करूँ उस पगली का, जिसके लिए आहे भरता हूं?
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem