क्या समझे कोई Poem by akshaya shah

क्या समझे कोई

कुछ ख़ुद से कुछ वक़्त से ज़िन्दगी की हार जो समझे कोई

हर तरफ़ लगी इस आग में ठंडी पड़ी रूह जो समझे कोई

उम्मीदों की राख तले दफ़न ख्वाबों की लाश को समझे कोई

मुस्कुरा के जो दे गए कुछ दोस्त वो रिसते हुए ज़ख़्म जो समझे कोई

चेहरे पे झूठ की दमक में छुपे सच के दाग जो समझे कोई

हर रोज़ पिघलते जिस्म के अंदर पत्थर होता दिल जो समझे कोई

किस्से कहें क्या कहें कहने से भी होगा क्या

बहरों की महफ़िल में पीट नगाड़ा होगा क्या

वो कौन होते हैं जो ख़ामोशी समझें किसने देखे हैं वो लोग

दोस्त कहा करते थे जिनको नज़र चुराते हैं वो लोग

रूह की तन्हाई में जिस्म का बाज़ार ये कैसा सौदा जो समझे कोई

बातें भी अब रास नहीं आती शब्दों का खालीपन जो समझे कोई

Wednesday, February 20, 2019
Topic(s) of this poem: betrayal,lonely,sadness
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