ओ मेरे बंधू सखी सहेली
मानवता परगई अकेली
कल तक आलिशान महल था
आज है वह सुनसान हवेली
वक़्त ने उस्से मुंह है मोड़ा
इंसानों ने तन्हां छोड़ा
चारोँ ओर सितम का पहरा
तड़प रही है ज़ख्म है गहरा
जिस्म बना है ताश का पत्ता
बँटगया ये मजबूर निहत्था
निर्धन को, धनवान को बांटा
गीता और क़ुरआन को बांटा
भाई बहन संतान को बांटा
हर मुख़लिस इंसान को बांटा
मुश्किल में लाचारी में है
घिरी ख़ार की झाड़ी में है
आओ निकल कर सामने आओ
मानवता की साख बचाओ
हरसू ईद दिवाली होगी
ख़ुशियाँ और ख़ुशहाली होगी
वरना हम हम नहीं रहेंगे
रह कर ज़िंदा नहीं रहेंगे
लेखक: नादिर हसनैन
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