आज समय के बेडियों ने, बांध रखा तूझे तो क्या |
शीशे के कमरे में, अपने ख्वाहिशों को घुटने न दे |
तेरे कलम में जोर इतना, तू उठ चल हो खड़ा |
तू ही रवि, तू ही कवि, अब चल मृदु झंकार दे |
साथ तेरे न कोई अब, बंद सभी राहें तो क्या |
तेरे हृदय में सूरज बसा, अब नई ललकार दे |
न सोच तूने क्या है खोया, और किया है क्या गलत |
है धूप कभी और छांव कभी, उठकर अभी आगाज दे |
शिशकियों में तेरे, जो बह गए मोती तो क्या |
तू हंसी बन सकता है अब भी, मायूसियत को जीने न दे |
यह एक पग जो कर लिया तूने सफर, तो मंजर कुछ और होगा |
अब चल नई सौगात लिख, अंधेरे को तू यूँ पलने न दे |
- उद्धव नायक
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem