अमल करना था जिस क़ुरआन की आयात पर हमको Poem by NADIR HASNAIN

अमल करना था जिस क़ुरआन की आयात पर हमको

अमल करना था जिस क़ुरआन की आयात पर हमको

उसे हमने फ़क़त अब तक दुआओं में पुकारा है


समझने की है हर बातें हर एक अलफ़ाज़ क़ुरआं की

ख़ुदा ने सिर्फ पढ़ने को नहीं क़ुरआं उतारा है


ये था दस्तूर ज़िन्दों का मगर अफ़सोस की है बात

बना मंशूर मुर्दों का और ताक़ों में संवारा है


इल्म का दर्स देता है संवर जाए जो आमिल हो

बे आमिल के ही हाथों में ये क्यों क़ुरआं हमारा है


तसख़ीर ए काएनात का तदरीस है इसमें

मदरसों के लिए ही बस नहीं क़ुरआं हमारा है


मुरदा क़ौम हो ज़िनदा किताबे आसमानी से

फ़क़त मुरदों की बख़शिश का नहीं हरगिज़ सिपारा है


अरे अल्लाह के बन्दे बता क्या कररहा है तू

ख़ुदा ने रैशनी बख़शी तू तारीकी का मारा है


: नादिर हसनैन

Monday, August 7, 2017
Topic(s) of this poem: religion,sadness
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