देख वह आ रही है Poem by Tanya Roy

देख वह आ रही है

'देख वह आ रही है।'

देख वह आ रही है,
तमस के बीच,
एक दीप जला रही है,
प्रकाश रूपी पौधों को सींच।

शाश्वत लकीरें,
स्वच्छंद कपाल पर,
मानो लक्ष्मी खुद,
मेहरबान उसपर;

देख वह आ रही है,
कुछ ढूँढती, कुछ घूमती,
कुछ मस्तियाँ,
कुछ अठखेलियाँ करती।

देख वह आ रही है।
चंचलता उसके चेहरे पर,
गंभीरता उसकी आँखो पर,
टुक-टुक निहारती खजाने को;
जैसे धन-कुबेर की कृपा दृष्टी उसपर,
मानो स्वर्ण हो छिपा खजाने के भीतर।

देख वह आ रही है।
मन में लगन,
आँखो में स्वप्न;
स्व्पन में नाचती वह,
धिक-धिना-धिन।

देख वह आ रही है।
लेकर अपने बिगड़े केश,
लगे उसके घर हो जैसे,
क्लेश ही क्लेश।

देख वह आ रही है।
लिया टटोल उसने,
मनमाफिक खज़ाना,
सोचती, अब चलेगा
अपना मनमाना,
मिलेगा रोज़ का खाना,
न चलेगा अब,
किस्मत का कोई बहाना।

आँखों में भी, चंचलता आई,
होंठों पर मुस्कान छाई,
डूबी है वह, कल्पनाओं में
लेकर उसे भुजाओं में।

देख वह आ रही है।
सोचती, मदमाती, मुस्काती;
अब उसके,
जीवन का भी होगा हिसाब
होगी, उसकी भी अपनी,
रौब और आब;
आखिर मिली जो है,
उसे, उस कूड़ेदान में,
वह सुनहरी किताब।

Monday, May 30, 2016
Topic(s) of this poem: feminism
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