लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना मिटि फ़िरौन की ताक़त Poem by NADIR HASNAIN

लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना मिटि फ़िरौन की ताक़त

Rating: 5.0


(ग़ज़ल)
कहीं चहकेगी बुल बुल और कहीं गुल मुस्कुराए गा
ढलेगी रात अँधेरी सवेरा लौट आए गा

ख़ुदा जिसको जहाँ चाहे बिठाता है बलन्दी पर
क़त्तारों में खड़ा हूँ मैं मेरा भी वक़्त आए गा

ऐ तूफाँ तुझ से कहता हूँ अदब से पेश आया कर
जवानी कुछ दिनों कि है शमा कब तक बुझाए गा

हमें बांटा है फ़िरक़ों में बड़ी गन्दी सियासत है
सितमगर की है मजबूरी सितम फिरसे वोह ढाए गा

किसी भी क़ौम का दुश्मन मसीहा हो नहीं सकता
हो मिल्लत की निगाहें तो नज़र तुझको भी आएगा

लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना मिटि फ़िरौन की ताक़त
तेरी हस्ती भला क्या है बता क्या आज़माएगा

हिक़ारत की नज़र से देखने वालो गुज़ारिश है
वोह गुज़रे दिन भी ताज़ा कर तुझे कुछ याद आएगा

सज़ाए मौत से बढ़ कर सज़ा दुश्मन को देनी हो
वोह जबभी सामने आए ख़ुशी के गीत गाएजा

सब्र से काम ले नादिर ये वक़ते आज़माइश है
तेरी क़िस्मत का तारा भी जहाँ में जगमगाए गा

: नादिर हसनैन (नादिर)

लुटा क़ारूणि ख़ज़ाना मिटि फ़िरौन की ताक़त
Saturday, August 8, 2015
Topic(s) of this poem: corruption
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