सब्र और इम्तेहान में रक्खे हैं
चंद दिये जो तूफ़ान में रक्खे हैं
रंजिशें करनी ही हैं तो आजा ज़ोर लगा
हम भी आज खुले मैदान में रक्खे हैंll
ये अलग बात है तुम्हे देखा नही कई दिन से मग़र
तुम्हे ही देखने के ख्वाब पाल रक्खे है
ये उसकी मजबूरियां ही जाने वो क्यों बदला है मगर
यहाँ लोगो ने उसके कई नाम रक्खे है
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ग़ज़ल विधा में आपका प्रयास अच्छा है. अभिव्यक्ति सुंदर है. ग़ज़ल के स्वरुप को संतुलित करने की ज़रूरत है. धन्यवाद व शुभकामनायें.