मैं कौन हूँ
अपने अस्तित्व को ढूंढने
किस ओर जाऊँ
राहें सूझती ही नहीं
रात भी गहरी हो चली है
सायं सायं हवा की सनसनाहट
मानो सन्नाटे को चीरती हुई
अपनी मंज़िल को छूती है ।
और एक मैं हूँ बेबस
जिसे न कुछ पता कुछ खबर
एक सवाल ज़ेहन में गूंजता है
कहाँ से आया हूँ कहाँ है मुझे जाना
कहाँ रुकना है कहाँ है ठिकाना
बस कदम चलते जाते है
लड़खड़ाते गिरते पड़ते
संकरी रास्ता पथरीली ज़मीन
कहीं तो है कुछ तो है
कुछ ज़ख्म नए पुराने
कोईखोई हुई उम्मीद
यह कैसी अतरंगी सी धुन
कानों में टकराती है
बेचैन आंखें उसे ढूँढ़ती हुई
थरथराते होंठ कुछ कहने को आतुर
एक अजीब सीकशमकश
एक अनोखी कहानी
इस तरकश से जो बाण निकल गया
जाके रुकेगा कहाँ! ! !
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