अस्तित्व की खोज में Poem by Kavita Kilam

अस्तित्व की खोज में

मैं कौन हूँ
अपने अस्तित्व को ढूंढने
किस ओर जाऊँ
राहें सूझती ही नहीं
रात भी गहरी हो चली है
सायं सायं हवा की सनसनाहट
मानो सन्नाटे को चीरती हुई
अपनी मंज़िल को छूती है ।
और एक मैं हूँ बेबस
जिसे न कुछ पता कुछ खबर
एक सवाल ज़ेहन में गूंजता है
कहाँ से आया हूँ कहाँ है मुझे जाना
कहाँ रुकना है कहाँ है ठिकाना
बस कदम चलते जाते है
लड़खड़ाते गिरते पड़ते
संकरी रास्ता पथरीली ज़मीन
कहीं तो है कुछ तो है
कुछ ज़ख्म नए पुराने
कोईखोई हुई उम्मीद
यह कैसी अतरंगी सी धुन
कानों में टकराती है
बेचैन आंखें उसे ढूँढ़ती हुई
थरथराते होंठ कुछ कहने को आतुर
एक अजीब सीकशमकश
एक अनोखी कहानी
इस तरकश से जो बाण निकल गया
जाके रुकेगा कहाँ! ! !

Monday, March 2, 2020
Topic(s) of this poem: poetic expression
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Being a witness of the mass exodus of my fellow Kashmiri Pandits we question our survival our existence!
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Himachal Pradesh
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