|| कब तक? || Poem by Anand Prabhat Mishra

|| कब तक? ||

एक सुनहरे सपने जैसे बीते उन लम्हों में,
कब तक तुम्हें संजोता रहूँ
वो अंतिम मुलाकातों को याद कर के,
कब तक अश्रुओं से पलकों को भिगोता रहूँ
तुम्हारा मिलना महज एक संयोग था अगर
तो कब तक अतित के मोतियों को हृदय में पिरोता रहूँ
देहरी पर रख कर उम्मीदों की दीपों को
कब तक आहटों से बातें करता रहूँ
मेरी स्मृतियों में तुम पर सिर्फ मेरा अधिकार होगा
कब तक सजल भ्रम पालता रहूँ
तुम्हारे मार्ग में शायद कभी मैं मिल भी जाऊं
मगर अपनी मार्ग में कब तक तुम्हे ढूंढता रहूँ
एकांकी मन में भी चर्चाएं सिर्फ तुम्हारी होती है
कब तक मन की शालीनता पर वार करता रहूँ
एक विराम चाहिए शायद इन सांसों को भी
कब तक धड़कनो से एक ही सवाल दोहराता रहूँ
कब तक? ? ?
|| आनन्द प्रभात मिश्र ||

Saturday, September 21, 2024
Topic(s) of this poem: hindi
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