ज़िन्दगी अपनी (ZINDAGI APNI) Poem by Nirvaan Babbar

ज़िन्दगी अपनी (ZINDAGI APNI)

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बड़ी शिददत से सवारी थी ज़िन्दगी अपनी,
आज अपनी ज़िन्दगी इक मज़ार नज़र आती है,

ज़ख़्म खाए, सितम सहे इतने,
सांसे भी अब तो कम पड़ीं जाती हैं,

शक्ल अपनों की थी काम गैरों का किया,
तस्वीर ताम्नाओं की थी, रंग बद - किस्मती भरे जाती है,

ज़हर पी कर भी बांटा सदा अमृत हमने,
अब तो अपने हर गीत मैं, अपने ही ज़ख्मों की तस्वीर नज़र आती है,

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निर्वान बब्बर
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