वक्त की दिवार हम नहीं
झील सी ही तो आँखे होती है
जिस में पूरी रौशनी दिख जाती है
देह नहीं होता सामने पर सफर होता है
एक दूसरे का साथ ही दिख जाता है।
कैसे कह पाये खुलकर?
बस शर्म आती है उभरकर
मनमे हजार सपने है
जो सच में अपने है
देह की लोलुपता का कोई मायना नहीं
आप तो लगते हो आयना सही
बस हम डूब जाते है कस्ती सामने लिये
आप ही है की मानते ही नहीं।
आपकी कोमलता का है एहसास
तभी तो ले रहे है लम्बी सांस
यही हरदम सोचते है की कैसे आपका जतन करेंगे?
वक्त के पहले पतन को स्कैसे रोकेंगे?
वक्त की दिवार हम नहीं
आप की याद आती बारबार सही
पर हम है की डूबे रहते है यादों में
समंदर की लहरें भी गम हो जाती संवादों में।
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वक्त की दिवार हम नहीं झील सी ही तो आँखे होती है जिस में पूरी रौशनी दिख जाती है