तू इंसान ही रह, बस इंसान ही बन (TU INSAAN HI REH, BAS INSAAN HI BAN) Poem by Nirvaan Babbar

तू इंसान ही रह, बस इंसान ही बन (TU INSAAN HI REH, BAS INSAAN HI BAN)

ये सोच बड़ी प्रलंकारी है,
कहाँ, किसी के लिए, हितकारी है,
ये निशि है ऐसी, जो है रक्त से रंजित,
ऐ इंसान तेरी काल की ये निशानी है,

क्यों हाथों मैं है तलवार तेरे,
क्यों झुलसी - झुलसी साँसें हैं तेरी,
तेरी आग उगलती आहों से,
क्यों छाहं मैं भी है, आग बड़ी,

तेरा - मेरा, मेरा - तेरा क्या, अब बस यही सच्चाई है,
ना भूल के तू, इंसान ही है, तेरे पग नीचे, धरा ही है,
तेरा आकाश मैं कहीं वास नहीं,
क्यों समझे तू, ... तू सबसे ऊँचा है,

क्यों इर्ष्या, द्वेष से भरा है तू,
क्यों मार काट, जीवन है तेरा,
तू संभल जा ऐ नादां - इंसान,
तेरा अंत, तेरे हाथों ही है,

क्यों नाश तू अपना, करने पे तुला,
तू इंसान ही रह, बस इंसान ही बन,
अपने नाम को तू, बदनाम ना कर,
इस दुनिया का तू भगवान् ना बन,

हर इन्सान से तू, बस प्यार ही कर,
हर इन्सान का तू बस, मान ही कर,
तू अपने को तब ही बचा पाएगा,
वरना मिटटी है तू, मिटटी मैं ही तू, मिल जाएगा,

निर्वान बब्बर

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COMMENTS OF THE POEM
Shraddha The Poetess 07 September 2013

bahot gehraai se likhi gayi kavita........sachchaai se yukt... well done sir..........

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