Por-Por Chha Gaya Basant Poem by Upendra Singh 'suman'

Por-Por Chha Gaya Basant

Rating: 4.5

पोर-पोर छा गया बसंत

मन मयूर पुलकित है, रोम-रोम सुरभित है|
अंग-अंग हो गया मृदंग, मन को मेरे भा गया बसंत|
पोर-पोर छा गया बसंत|

आमों की अमराई पुष्पों की तरूणाई|
अलसाई दुल्हन की मोहक सी अंगड़ाई|
मदमाती धरती से उठ रही उमंग|
मन को....................................

झूम-झूम पेड़ों की डालियाँ हैं गा रहीं|
धानी चुनर ओढ़े गोरी इठला रही|
मादक पुरवाई बिखेरती सुगंध|
मन को.......................................

गदराई धरती को छेड़ती हवाएं|
मन को गुदगुदा रहीं हैं प्यार की अदाएं|
प्रेम प्रीति-रीति की उठ रही तरंग|
मन को.......................................

साकी की अलकों से उठ रही बाहर है|
गली-गली ठुमक रही गाँव गुलज़ार है|
कहीं उड़ मचल रहा फाग कहीं छन रही है भंग|
मन को......................................

साँझ ढरे पश्चिम में उड़ रहा गुलाल|
मानो गोपियन संग होरी खेलें नंदलाल|
मोहे छेड़ो ना श्याम मोहे ना करो तंग|
मन को...........................................

उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'

Friday, August 1, 2014
Topic(s) of this poem: spring
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