मैं (MAI) Poem by Nirvaan Babbar

मैं (MAI)

मैं लड़ता हूँ, झगड़ता हूँ, ख़ुद से ख़फ़ा मैं यार रहता हूँ,
इस बे - दर्द ज़माने मैं, दर्द ख़ुद का मैं सहता हूँ,

ऐ वक़्त मुझ पे, ये क्या गुज़री, बयाँ मैं कर ना पाता हूँ,
लगा के दर्द सीने से, झूठा मुस्कुराता हूँ,

आसमाँ सर पे टूटा है, चलो उसे भी थाम लेतें हैं,
टूटे पैर हैं लेकिन, फिर भी चलना है, तो चलना है,

दिल के प्याले से छलक कर, ग़म भी अब, मेरा, दामन भिगोता है,
आखें शोले बरसाती हैं, साँसे धूआं उगलतीं हैं,

ख़ामोशी तूफानों से हैं बदत्तर, बे - तहाशा शोर करती है,
मैं ज़िंदा हूँ किसी तरहं, मौत तो साथ चलती है,

करूँ क्या इज़हार, दिल की बातों को, ख़ुद ही लबों को सीते हैं,
क्या मानें, ज़माने के हम क़ायदे, लोग क्या, हमारे कायदों पें चलते हैं,

तस्वीरें सब ये झूठी हैं, मुख ये सच से फेर लेतीं हैं,
ख़ुद तो शर्मिंदा नहीं होतीं, पर हमें शर्मिंदा कर ये देतीं हैं,

क्या बोलें हाल दिल का अब, हर लम्हा बे - हाल होतें हैं,
हर पल, दिल से लहू, जो बहता है, पैदा, कई तूफ़ान करता है,

बड़े है, बोझ सीने पे, ना जाने कैसे सहते हैं,
शहर मैं मुर्दा लोगों के, ना जाने कैसे, सांस लेते हैं,

ये शहर इक बंद पिंजरा है, यहाँ पंख हम, बाँध लेते हैं,
बड़े गुमसुम, डरे सहमे, यहाँ छुप कर, उधार की सांस लेते हैं,

निर्वान बब्बर

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INDIAN COPYRIGHT ACT,1957 ©

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