कल्पना के कोरे कागज़ पर (KALPANA KE KORE KAGAZ PAR) Poem by Nirvaan Babbar

कल्पना के कोरे कागज़ पर (KALPANA KE KORE KAGAZ PAR)

कल्पना के कोरे कागज़ पर लिखा हमने अपना पता,
भावनाओं के वितानों मैं छुपा कर, रच ली कैसी परिकल्पना,

हर स्वपन देखा इस रूचि से, सम्पूर्ण तो हो ही जाएगा,
हमने की, आशा स्वर्ग की, अजब, अनोखी सोच से,

ईंट, पत्थर, मिटटी, रोड़े लाए, चलो घर तो अब बन ही जाएगा,
पर बात ये भूले, के बच्चे, तू धरा, कहाँ से लाएगा,

रात्रि के, अँधेरे पलों मैं, ख़ोजने निकले जव़ाब,
इधर देखा, उधर देखा, अँधेरा ही अँधेरा मिला, ना मिल सका, कोई जवाब,

जा बैठे, फिर मदिरालय मैं सोचा, अचेत हम हो जायेंगे, पर क्या पता था,
सभी हमको, वहां हम जैसे ही मिल जायेंगे, अचेत तो होंगे नहीं, नव - चेतना हम पायेंगे,

लौट आए फिर वहीँ, नव - चेतना के नव - भाव मैं,
दिन की लालिमाँ दिखी तब, नव - घनों को चीरती,

निर्मल, नव - जीवन जागा, फिर अंतर मन के नव - भाव से,
चिंता तभी, फिर कल की छोड़ी, लगे वर्तमान सवारने,

वितानों - ओडी हुई चादर
अचेत - होश मैं ना होना

निर्वान बब्बर

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