सुषमा अपार लिए अदभूत अनंत|
फिर झूम-झूम आ गया बसंत|
अंगड़ाती धरती का सोलह सिंगार लिये|
सांवरे की राधा के रूप का प्रसार लिये|
हरित रूप-राशि लिये शोभित दिगंत|
साजन की बाँहों का मंजु मुकुल हार लिये|
दूर क्षितिज आंगन में अम्बर का प्यार लिए|
भाव उदधि संग लिये प्रेम की तरंग|
महुआ की मादकता मधुमय गुहार लिए|
इठलाती कलियों में यौवन का भार लिए|
पात-पात राग लिये गात नवरंग|
मतवाली अलकों में झूमती बहार लिये|
अलसाई अंखियों में प्रेम का ख़ुमार लिये|
अधरों पर हास लिये मन में उमंग|
मधुवन में माधव की राधा पुकार लिये|
नेह प्रीति रीति मधुर अनुपम उपहार लिये|
विरहिन की आस लिये रास के प्रसंग|
मादक मंजरियों में मधुरस का ज्वार लिए|
फागुन की मतवाली मधुमय बयार लिये|
कोयल की कूक लिये पूर्वा के छंद|
रूपसी के केश-पाश रूप की कटार लिये|
धानी चुनर ओढ़े दुल्हन हज़ार लिये|
आस की सुवास लिये मधुर प्रेम-पंथ|
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
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ऋतुराज बसंत की शोभा, महक, चहक व मदमाते यौवन को रूपायित करती यह मनोहारी व मनभावन रचना कल्पना की अत्यंत ऊँची उड़ान है........बहुत खूब!