जागी है चेतना (JAAGI HAI CHETNA) Poem by Nirvaan Babbar

जागी है चेतना (JAAGI HAI CHETNA)

जागी है चेतना, फिर जीवन मैं,
जीवन के नए छोर पे मैं फिर, देखो आ के खड़ा हुआ,

सोचा भूल - भुलइयां से निकल चूका हूँ, पहुँच गया सही राह पर,
लेकिन धक्का - मुक्की, फिर लेना - देना, पंहुचा मैं कैसी राह पर,

तंगी देखी राहों की मैंने, फिर भी चल निकला उस मार्ग पर,
जिसका नहीं था ठोर - ठिकाना, ऐसे पथरीले मार्ग पर,

भावों की जहाँ नहीं थी कीमत, माया - ही - माया आम थी,
जीवन की आपाधापी हर जगह, हर तरफ विध्यमान थी,

क्या करता मैं पगला सा, चुप - चाप यूँ हीं बस चल निकला,
खेला अपने जीवन से ख़ुद ही, गज़ब ये जीवन रोग बना,

संचित कर, अपनीं पूरी शक्ति को, बिना डरे बस, चल निकला,
पथ बिखरा, कई तूफां आए, संकट मैं भी प्राण पड़े, रुका नहीं मैं फिर भी साथी, बस चला और बस चल निकला,

गुण दोष दिखे, फिर अपने कई, कर्मों के उस मार्ग पर,
ख़ुद को संवारा, स्वर्ण किया फिर, जीवन के उस मार्ग पर,

आज भी भटक रहा हूँ लेकिन, मंजिल की की बस आस लिए,
ऊँची - नींची राहों पर चलने की क्षमता, ह्रदय मैं अपने साथ लिए, ,

जीवन निरंतर चलने वाला पथ, जीवन का अभियान अपने श्वासों के साथ लिए,
अनवरत चलने वाली स्थिति है, धरा का पगों से नाप लिए,

शोले बरस रहें हैं हर पल, बहारों का आना बाकी है,
निर्वान तुझे अभी ख़ूब है चलना, अभी अम्बर को छूना बाक़ी है,

निर्वान बब्बर

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
All my poems & writing works are registered under
INDIAN COPYRIGHT ACT,1957 ©
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success