हृदय की मरू भूमिं मैं (HIRDAY KI MARU BHUMI MAIN) Poem by Nirvaan Babbar

हृदय की मरू भूमिं मैं (HIRDAY KI MARU BHUMI MAIN)

हृदय की मरू भूमिं मैं,
मरुत - प्रवाह से उडी रेत है,

खड़ी पुरानी यादों पर, समय की पड़ती धूल है,
ग़र्म रेत के बिछोने पे, चुभते यादों के शूल हैं,

नागफ़नी से, भावों का, अज़ब निराला रूप है,
छाई धूप जज़्बातों, उनका भी अपना स्वरुप है,

आखों मैं गिरते रेत के कण, हर कण मैं, उन्माद की जंग है,
धरा तो अब फ़टने को है, गहराई मैं कहीं भूकंप है,

शाख़ पे अब हर लम्हे के, खिलते बदरंग से फूल हैं,
गंध है ये कर्मों की, अपनी साँसे जिनका रूप हैं,


मरुत - प्रवाह - हवा चलने से,

निर्वान बब्बर

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