दुपट्टा(Dupatta) Poem by Laljee Thakur

दुपट्टा(Dupatta)

दुपट्टा

बर्फीली ठण्डी हवाओं से बचाता हूँ।
बरसात में बूंदों की दरिंदगी से बचाता हूँ।
जेठ की कड़क धुप से छुपाता हूँ।
वसंत की बहार में खुशियों से लहराता हूँ।


प्रेमियों के प्यार में भी घुल जाता हूँ।
चेहरे को ढक जन्नत की याद दिलाता हूँ।
बुरी नजर, बत्तमीज और छेड़खानी से बचाता हूँ।
तेरी खुबशुरती मैं दिल से सजाता हूँ।

जब वदन कट जाये या कोई दुर्घटना हो जाए तो मरहम भी करता हूँ।
मुझे पटक पटक कर धोओ या कस के निचोड़ो फिर भी प्यार करता हूँ।
चाहे तू कुछ भी कर ले अब तुझसे नहीं डरता हूँ।
मैं डरता हूँ तो बस तेरी बेवफाई से डरता हूँ।

आज मुझे वह जगह देती है जहाँ मेरी कोई जरुरत ही नहीं।
अब मुझे यह लगता है की अब मेरी कोई जरुरत ही नहीं।
कभी सिर में बांधकर तो कभी कमर में बांधकर मंच पर थिरकती है।
मैं तो बेशर्म हो चुका हूँ चाहे सिर में बांधो या कमर में मंच पर उतारो या बड़े शहर में।

क्या किया था मैंने जिसकी सजा मिल रही है।
क्या खामिया है मुझमे कि मुझसे वैर कर रही है।
जिस रंग का चाहो उस रन का मिल जाता हूँ।
प्यार से पसारो अगर तो वदन पर सुख जाता हूँ।

अपनी बूढी दादी की भी बात सुन क्योंकि वह भी कभी जवान थी।
सलवार सूट और दुपट्टा उसकी परी होने की पहचान थी।
बुरे नजरो की संख्या तब भी कम न थी।
पर मेरे कारण उन्हें थोडा भी गम न थी।

कभी बुजुर्गों ने बनवाया मुझे अपने प्रेमिकाओं की रक्षा के लिए।
वो खुश किस्मत थी और मैं भी खुश नसीब था।
आज प्रेमिकाओं ने मुझे हटाई अपने प्रेमियों के लिए।
अगर प्रेमी ही बत्तमीज है तो दुनिया क्या करे।

अरे मुझे हटाई तो सिसकता हूँ मैं कोने में फफकते सलवार सूट को क्यों हटाई।
पश्चिमी गोरी छोरी बनने का नशा लगी है तुझे।
पलभर में बतमीजों ने तेरी हंसी क्यों उड़ाई।
क्योंकि साड़ी दुनिया को बत्तमीज बस तूने ही बनाई।

घर में झगड़ती हो प्रेमी से लड़ती हो।
पलभर के झगड़ों से जीने से डर्टी हो।
गर्दन में बाँध मुझे और पलभर में मरती हो।
फिर इस कदर मुझे ही दुनिया में बदनाम करती हो।

Monday, July 6, 2015
Topic(s) of this poem: love
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Laljee Thakur

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