चलते हैं मगर (Chalte Hai Magar) Poem by Nirvaan Babbar

चलते हैं मगर (Chalte Hai Magar)

इक सूनी सी डगर पर, चलते हैं मगर,
धड़कन का शोर तो साथ ही है,

हम खोए तो है खुद मैं ही, मगर,
ख़ुद के होने की ख़बर तो, साथ ही है,

अपनी साँसे तो, अपनी डगर ही चलती हैं मगर,
इनके रुक जाने की फ़िक़र, तो साथ ही है,

जीवन के इक सफ़र मैं ही, सफ़र हैं ना जाने कितने मगर,
हर सफ़र का अंजाम ख़ुदा के हाथ ही है,

हर मोड़ पर नज़र आ जाती है इक उम्मीद, मगर,
हर उम्मीद का मक़सद क्या जीत की राह ही है,

गुज़रते - गुज़रते, सफ़र तो गुज़र जाता है, मगर,
हर सफ़र की हक़ीक़त, कुछ राज़ ही है,

पैरों मैं वक़्त की खाक़ तो लग जाती है, मगर,
इस ख़ाक की सोहबत मैं इत्मिनान ही है,

इक दिन तो सब, हो जायेंगे माटी, मगर,
इस माटी की चाहत, ख़ुदा का साथ ही है,

निर्वान बब्बर

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