चाक जिगर रहते हैं (Chaak Jigar Rehte Hain) Poem by Nirvaan Babbar

चाक जिगर रहते हैं (Chaak Jigar Rehte Hain)

Rating: 5.0

हमेशा से ही हम तो, चाक जिगर रहते हैं,
ना जाने कितने ही सितम, रोज़ यहाँ सहते हैं,

मन ही मन कितने ही, आँसू हम बहाते हैं,
लबों को सी कर, ज़िन्दगी जिये जाते हैं,

ज़िन्दगी की रावानगी मैं, बस यूँ ही बहे जाते हैं,
कुरेद कर लाते हैं बीते लम्हों को, और आज हँसे जाते हैं,

खड़े हो सरहद पर ज़िन्दगी की, वक़्त के थपेड़े सहे जाते हैं,
चरमराती ज़िन्दगी को लिए हाथों मैं बस, यूँ ही चले जाते हैं,

वक़्त कि गर्द से, वक़्त के शिकवे ढूँढ लाते हैं.
सहर को जी लेते हैं रात समझ, काँटों को फूल समझ गले लगाते हैं,

निर्वान बब्बर

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