भौजी की होली
अबहीं भौजी से देवर कर ही रहे चिकारी,
भौजी ने अपने हाथ, उठा लई पिचकारी।
देवर लगे ढूंढने ओट, इधर उधर बचने का
भौजी ने किये बिन देर, फौरन दे मारी।
बजाती चली आय रही, झाल, ढोल मजीरा।
झूम झूम के गाय रही, फगुआ और कबीरा।
आन पहुंची पास में, मंडली देवर मित्रों की
उड़ाय रही हवा में खूब, रंग, गुलाल, अबीरा।
पहुँच गयी मंडली जब, घर उनके उस पल।
देखी हुआ पड़ा, अपने दोस्त को बेकल।
बना था भीगी बिल्ली और रंगा सियार
यार की हालत थी, होली में बड़ी खलबल।
देख के भौजी को ढंग, सब के सब थे दंग।
बनी योजना, डालेंगे, उस पर भी हम रंग।
है होली का दिन, छोड़ेंगे ना उसको आज
मिल सबै हम यार दोस्त, भिगोयेंगे अंग।
चले जोश में वे, बाजी हो गयी उलटी।
भौजी ने धरा था रंग, भर के पूरी बलटी।
मित्र मंडली ज्यूँ ही, आई भौजी के पास
उठाई रंग की बलटी, दन से ऊपर पलटी।
मित्र मंडली की काम न आई कोई चतुराई।
चपल भौजी जुगत लगा के खुद को बचाई।
छत पे जाकर फिर वो, खूब रंग बरसाई
भीग-भाग के पलटन सारी, लौटी शरमाई।
दाल गली ना देवर की, रंग डाली तब साड़ी,
भौजी ने थी सुखने को, रस्सी पे जो पसारी।
महँगी थी साड़ी वो, भौजी को आया गुस्सा
डर के मारे, मन को मारे, देवर ने कचारी।
देवर जी के होली पर, फिर आये खूब मजे।
लेकर के आई भौजी भर भर कर प्लेट सजे।
छानी भांग, खिलाई गुजिया और मालपुआ
खाये देवर जी, जी भर के, भौजी को भजे।
एस० डी० तिवारी
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem