जमीर Poem by Ajay Srivastava

जमीर

भ्रष्टाचार का तालाब भरता जा रहा है ।
ईमानदारी का तालाब सूखता जा रहा है ।
भारत माँ की थाली मे खा रहे हो ।
साथ ही उसी मे छेद कर रहे हो ।
बात भारत माँ की थाली में छेद की होती
तो राहत की सास ले लेते ।

पर भरष्टाचारी तो डांसिंग स्टार के तरह असहाय जनता की
जेब फाड़ कर धन निकल कर भी असंतुष्ट है ।
ईमानदारो को संतुष्टि का धन कहाँ से मिल रहा है।
भारत माँ के मंदिर के घंटे शांत क्यों है ।
कोई तो शांत घंटो तो बजाओ ।
ईमानदारो भ्रष्टाचारिओ की असंतुष्टि और एकता से प्रेणा लेकर
यहाँ वहाँ देश के कोने कोने से भ्रष्टाचारिओ को निकल दो ।
देश की जनता का जमीर जगाओ ।

Saturday, April 25, 2015
Topic(s) of this poem: ego
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