आँखपन दे मुझको Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

आँखपन दे मुझको

मैं था अंधा दूर गगन में, बिन पेंदे का लोटा
टकरा जाता मिट जाता, जीवन खो जाता

मैंन मांगी आँखे, राहें मेरी राखें
फिर भी दौड रुकी ना मन में, ना अंधियारा जाता
टकरा जाता मिट जाता, जीवन खो जाता

आँखपन दे मुझको, जागरण दे मुझको
जो मांगा वो देता है तु, देने वाले दाता
टकरा जाता मिट जाता, जीवन खो जाता

(डॉ. रविपाल भारशंकर)

Monday, December 29, 2014
Topic(s) of this poem: meditation
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