कोई शहनाई गूंजी तो Poem by Kumar Mohit

कोई शहनाई गूंजी तो

Rating: 5.0

कोई शहनाई गूंजी तो, दिल-ए -गुलज़ार हो गया ;
कोई बारात देखी तो, जवां ये हुस्न खिल गया;

मुक्क़दर में अगर मौत ही है संगिनी मेरी;
और तलाक़-ए -ज़िन्दगी है गर मेरा तोहफा;
तो फिर मज़लिस ये कैसी काहे का धोखा;
जनाजे के हूजुम में फिर से वो एहतराम मिल गया;
कोई शहनाई गूंजी तो......................

शराफत का मोहल्ला रात भर करवट बदलता है;
इनायत और प्रसंशा को सदा ही ये तरसता है;
कोई ख़ाकी सी वर्दी में तो कोई हथियारबंद दस्ता;
उड़ा कर धज्जियाँ इनकी यहाँ से पार हो गया;
कोई शहनाई गूंजी तो। …………………

भला उस कौम का मतलब रहा ही ज़िन्दगी में क्या;
जो खुद अपनी नस्ल का नासूर बनती है;
बुझाती है चरागो को शहर में रौशनदान बनती हैं;
ग़मों कि महफिलों से कोई नगमा सा गूंजा तो;
खामोश बैठे होठ को फ़साना सा मिल गया;
कोई शहनाई गूंजी तो.......

Sunday, May 4, 2014
Topic(s) of this poem: society
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