मन्नत Poem by shivani gaur

मन्नत

बांधे थे कुछ ताबीज़ दरख्तों पर,
लगाये थे ताले अजाने शहर के एक पुल पर,
सर झुका धागों में गिरहें भी डाली थी,
बंद मुट्ठी की पीठ पर रख
पलक का बाल
फूंक भी मारी थी,
दीयों ने ताल मिलाई थी
डूबती-उतराती लहरों से,
कोई मौसम, कोई रुत, कोई रीत नहीं
जानती हूँ,
जो बेहद शामिल है मेरे लिखे हर शब्द में
कभी नहीं आएगा
मुड़कर
मेरी तरफ!

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