अज्ञातवास Poem by shivani gaur

अज्ञातवास

Rating: 5.0

.दरवाज़े से,
जमीन का साथ देती
झिर्री से गुजरी......
.एक चिट्ठी,
अधुरा सा अपनापन लिए हुए,
तैरे थे एकांत ओढ़े शब्द इति कहने के बाद भी,
अंतस में रक्खे एक चिंगार ने तापे थे बीते अनकहे से बरस,
सिरहाने रक्खी नीम की पत्तियों ने सेके थे कुछ कुहासे,
पारन्ति के फूलों को ज़बान पर घुलाती,
अजनबियत का गिलाफ ओढ़े
रिश्तों को,
काढ़ा सा पीती,
कसांद्रा का शाप अपने कांधों पर उठाये
ढो रही हूँ अग्यातवास.

COMMENTS OF THE POEM
V P Mahur 10 February 2014

Showing inner anguish of loosing something. Nice one.

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