ये भड़का हुआ दंगा Poem by Kezia Kezia

ये भड़का हुआ दंगा

ये भड़का हुआ दंगा
दिखाता है नाच नंगा
जब भी आता है
बहुत कुछ छोड़ कर जाता है
जलते हुए पिंजरों के अंश
दिलों मे सुलगते अंगारो के दंश
सुबकती अबलाओ के नोचे हुए शरीर
सड़कों पर कुचले बालकों की पीड़
जहां तहां उजड़े हुए आशियाने
ना भूलने वाले खौफनाक अफसाने
चूल्हे पर हाँडी में उफनता भात
आंगन में उलटी रखी खाट
लपटों में नहाते सुनहरी खेत
रिसते कदमों से लहुलुहान होती रेत
खेतों मे पकती नफरतों की फसल
छीनकर ले जाता है कितनों का कल
खतम हुए भाईचारे की सौगाते
सौप कर जाता है जाते जाते
मंदिरों की पताका भी यहीं रह जाती हैं
मस्जिदों की अट्टालिका यहीं रह जाती है
इंसानो में गिद्धों साकार कर जाता है
रुह को भीतर तक खोखला कर जाता है
ये भड़का हुआ दंगा
दिखाता है नाच नंगा
जब भी आता है
इंसानियत को शर्मसार कर जाता है
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Monday, May 22, 2017
Topic(s) of this poem: brotherhood
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