खेलावति बाल, सुलावति लोरी गाई Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

खेलावति बाल, सुलावति लोरी गाई

खेलावति बाल, सुलावति लोरी गाई सुनाई,
                बहारति भवन औ आँगन लिपावति है।
आनति जल कूपन सँ, दुहावति क्षीर गायन के,
                मटकन महँ भरि भरि माखन मथावति है।।
भोजन बनाय पवावति  परिकर अनुचरन,
                  अँग-बदन अन्हवाय, सब बसन धुलावति है।
बसैं घनश्याम नयन, नाम लेत अँसुवन बरसैं,
                  वृन्दावन ब्रजगोपिन की'नवीन'शरणागति है।

Thursday, March 23, 2017
Topic(s) of this poem: love
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