सुरभित समीर Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

सुरभित समीर

प्रासाद
उद्दान
मँद-मँद
सुरभित समीर,
रँग-बिरँगे
प्रफुल्लित-प्रमुदित-पुष्पित पुहुप।
उड़ती इधर-उधर
रँग-बिरँगी तितलियाँ,
पुष्पों पर प्यार -दुलार सँवारते
काले कजरारे भ्रमर
रसपान पसारते,
बेला-विष्णुलता सँग लिपटी
जूही-माधवीलता सँग
खेलती अठखेलियाँ,
गुलाब-केवड़ा ओर मुख पसारे,
अपना मुखड़ा सामने किए,
लता कामिनीवत्
तरु सँग लिपटाई।
सरोवर बीच विहार कर रहीं मछलियाँ
रँग-बिरँगी;
तट पर बैठे बत्तक-बक
और
सरोवर बीच
प्रमुदित-पुष्पित पँकज।
राजकुमार चले
विहार करने;
साथ में अगणित
रति-रुपा पुतलियाँ;
काम-भाव उद्दीपन
सेवा है उनकी,
कुमार राजसी भाव-निमग्न रहें।
हुई सेवा शुभारँभ
कमनीय कामिनियों की,
वे थीं
कामनिपुणा, कामपण्डिता, कामप्रवीणा,
थीं नित्य नवीना
काम हाव-भाव विलासकर्ता
कटाक्ष काफी थे उनके
काम उद्दीपन हेतु।
कामचेष्टा प्रारँभ की
कमनीय कामिनियों ने,
किसी ने कामभाव से किया
कटाक्ष कुमार पर,
कोई कँठ में माला डाल
कोउ भुजदँड गरकँज में डाल
उरहार बनने का प्रयास कर रहीं,
कोई कर रहीं
कुमार स्कन्ध से
कपोल आलिंगन,
किसी ने उन्नत उरोज
सुख दर्शाना चाहा,
कोई कर रहीं
कुमार अधर से अधर मिलन।
कोई पुष्पित तरु डाल झूलती
कोई कुमार आलिंगन हेतु
पाँव फिसलने का अभिनय कर रहीं।
किसी कामिनी का कटिप्रदेश
बसन-आभरण से अनावृत हो रहा था:
कोई कामिनी आम्रमँजरी परिपूण^डाल झूल
अपना उन्नत मनहर
युगल वक्षस्थल प्रदर्शित कर रहीं,
कोई कोकिल-कँठी
कुमार श्रवण को
कलरव गान सुना रहीं,
कुमार को कोमल करतल
सुखद स्पर्श से
गुदगुदा रही;
कोई नुपूर ताल दे काम भाव
दिखा रहीं:
कोई पीताम्बरा
नीलपुष्प बसना बन
परिरँभन कर रहीं:
कोई कामिनी
कुमार कण^पटल को
निज आलिंगन लिए
शुक रववत् सुख दे रहीं;
किन्तु
कुमार चित्त कामहत न हुआ;
वह तो****************,
बना रहा
उद्वेलित-व्यथित,
सामने जिसके
नँगी तलवार लिए
महाकाल खड़ा है,
सिर काटने के लिए,
क्या उसके हृदय में
काम समा सकता है।
कुमार ने देखा
निर्निमेष, एकटक अपलक
कामिनियों की ओर,
कहा,
चलो, प्रासाद चलें।
कुँचित केश कामिनियों ने समझा,
सेवा सफल हुई
मन आप्तकाम हुआ,
रथ पर सुमन वृष्टि हुई,
सँगीतमय राग हुआ
किन्तु न मन को विराम हुआ।
चल पड़ा वसँती रथ,
पुष्प-परिपूरित-सुसज्जित-सुवासित,
किन्तु
अचानक यह क्या हुआ?
कुमार के
नयन पलक गिरने को
विश्राम मिला,
मन की गति को
आराम मिला,
सामने आत्माराम मिला,
शान्त-निवि^कार-लोक-परलोक-चिन्ता रहित,
भव-प्रपँच-मुक्त
'फिरत सनेह मगन सुख अपने, सोच नहिं सपने'
हाथ में भिक्षा-पात्र, एक कमँडल ।
मन की गति बदली,
प्रश्न हुआ, आखिर यह है कौन?
शान्त-धीर-गँभीर,
जो है परे सुख-दुख भाव पीड़ा,
मुँडित हैं सिर इसके,
काषायवस्त्रधारी है यह।
मिला उत्तर,
यह है अवधूत,
द्वन्दातीत-वीतराग,
साँसारिक सुखों का
इसने किया त्याग,
जीवन-जगत से न तनिक अनुराग
रागाग्नि हो गई शान्त इसकी
मोहाग्नि की चिनगारी नहीं
अहँकार हो गया निवि^कार,
छूट गये इनके मैं-तैं कार,
ब्रह्मविद्दा उपदेश का अधिकारी यह
जिसके श्रवण-मात्र से
दुख-सुख शोक बन्धन,
शुभाशुभ कर्मों से निवृति हो जाती
और
प्राप्त करता
परम समत्व, परम सुख, परम शाँति।
यह ब्रह्म है, जीवित परम ब्रह्म है,
परमात्मा को प्राप्त हो गया यहीं,
उसके लिए परलोक है ही नहीं,
यह है जगतार्थ,
न है जगत इसके लिए।
मूल मँत्र इसका,
हम उसके लिए,
तुम भी उसके लिए।
कुमार के छलक गए नयन
किया साष्टाँग प्रणाम,
धन्य हो गए, जीवन मेरे,
आज जीवन-वसँत शुभारँभ हुआ,
बारँबार, देव! आपको नमस्कार,
अपनी शरण मुझे आप लें, यही विनय, महिमा अपार,
पहना दें अपना वसँती चोला,
जीवन आ गया नित 'नवीन'बहार,
लुटा दिए कुमार ने
अपने समस्त राजसी वस्त्रालँकार
बन गए मानसी अवधूत
भूत भविष्य वर्तमान से परे।

केशव धृत बुद्ध शरीर, जय, जय देव हरे

Wednesday, March 22, 2017
Topic(s) of this poem: world peace
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