आर्तनाद Poem by vijay gupta

आर्तनाद

"आर्तनाद"

कलेजा मुँह को आता है,
चित्कार उसकी सुनकर।
जंगल में कोलाहल,
घोंसला उसका खाली हो गया,
किसी उल्लू सरीखे दानव ने,
उसे ये दर्द दिया है।
अंडे चुरा लिए उसके
उसे बे औलाद किया है।
क्या मिला उसको
यह तो वही जानता है?
जिंदा रहने के लिए,
हो सकता है ये जरूरी हो।
लगता है वो भी मजबूर,
चिड़िया भी सहने को मजबूर।
प्रकृति के नियमों से
हम सभी बंधे हैं।
एक का जीवन,
दूसरे के जीवन से जुड़ा है।
पर क्या करूं?
मेरा दिल कमजोर है,
प्रकृति दत्त इस व्यवस्था से दुखी हूँ।
कर तो कुछ सकता नहीं,
मगर अफसोस तो
जाहिर कर ही सकता हूँ।

Saturday, June 1, 2019
Topic(s) of this poem: grief
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vijay gupta

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meerut, india
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