मेरी जा़त ज़र्रा-ए-बेनिशाँ Poem by abhilasha bhatt

मेरी जा़त ज़र्रा-ए-बेनिशाँ

Rating: 5.0

मैं भूल गई थी
कि जो मेरी ज़िन्दग़ी में आए हैं
उन्हें लौट कर जाना होगा
क्योंकि उनकी खुद की भी एक ज़िन्दग़ी है
कोई भी ताउम्र तक तो मेरे साथ नही रह सकता
और कोई रहे भी क्यों
कोई तो ख़ास वजह होनी चाहिए
उनके रुक जाने की
मेरे लिए पास उनके
कुछ भी तो नहीं मैं किसी भी तरह से
सादगी का लिबास है
सादगी की ही बात है
ना काजल ना सुरमा आँखों में
ना ही मेरे गाल सुर्ख़ हैं
ना कोई तौर ना सलीका ज़िन्दगी के तमाम शऊरों में शामिल होने का
इस चकाचौंध में नए ज़माने के दौर में
मेरा किरदार लगता लोगों को अजीब है
कईं सिलवटों में मेरा बजूद है
उदासियाँ हैं कईं
उजड़ी सी सहर में
उधड़ी सी शामों में बसर होती मेरी जि़न्दगी है
बाज़दफ़ा भीड़ में जि़न्दगी की लगता है की
मेरी जा़त ज़र्रा-ए-बेनिशाँ

Tuesday, February 14, 2017
Topic(s) of this poem: life,loneliness
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 22 March 2018

यह नज़्म या कविता नहीं बल्कि लगता है जैसे कहीं यादें सुलग रही हों और उसमे से उठती चिंगारियों के बीच ह्रदय की पीड़ा ने मूर्त रूप ले लिया है. मैं नहीं जानता कि यह कविता किस पृष्ठभूमि में लिखी गई, कई जगह इसे पढ़ते हुए मुझे इसमें ट्रेजेडी क्वीन मीना कुमारी का अक्स नज़र आया. धन्यवाद, अभिलाषा जी.

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