अग्रसर Poem by Ajay Srivastava

अग्रसर

यू ना लुभया करो|
दिल ही तो है बहक जायगा|

बहकना दिल की प्रवति है|
प्रवति सही गलत को नही समझती|

ये बेलगाम अग्रसर हो जती है|
परिणम से अनजान कर्म गति की तरह|

हर नियंत्रण को लांधति|
हर सलाह की अवहेलना करती|

एक ही चाह दिल पर रहती
किस तरह से एक पल के लिए ही सही
पा जाने की चाहत
और चाहते है कि अन्तिम छोर की खोज मे अग्रसर है |

अग्रसर
Friday, March 18, 2016
Topic(s) of this poem: desire
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