बेलगाम मीडिया Poem by Upendra Singh 'suman'

बेलगाम मीडिया



बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.
राई का पर्वत करता पानी में आग़ लगाता है.

सबका काला चिट्ठा खोला अपना क्या इसने देखा.
आज़ सुनाता हूँ मैं इसकी काली करतूतों का लेखा.
ख़बरों का शातिर सौदागर ख़बरों का धंधा करता है.
ख़बरों की ऐसी हवस लगी हो गया अक्ल का अँधा है.

खबर लूटने की धुन में ये अंधी दौड़ लगाता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.


ख़बरों की खातिर जीता ये ख़बरों की खातिर मरता है.
ये बड़बोला, झूठा, दंभी सच होने का दम भरता है.
वेश्याओं के दलाल सा कभी दलाली करता है.
और कभी वेश्याओं सा बिकने को आगे बढ़ता है.

उल्लू सीधा करने को हर हथकंडा अपनाता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.


बेढब चाल-ढाल है इसकी ढंग बड़ा बेढंगा है.
ख़बरें पाने के जुनून में करवाता ये दंगा है.
होड़ मची है कौन सनसनीखेज खबर दे पाता है.
और‘टीआरपी' की दुनियाँ में अपना ध्वज फहराता है.

छल-प्रपंच और दानव-पेंच से अपनी धाक जमाता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



बन्दूकी लहजे में इसका कलम कैमरा चलता है.
और रिपोर्टर बोफोर्सी तोपों सा आग़ उगलता है.
जैसे कोई जंग छिड़ा हो गलियों में बाज़ारों में.
और लड़ रहा वीर-बांकुरा बारूदी अंगारों में.

ज्वाला में घृत फैलाता पागल सा ये चिल्लाता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



इसकी कथनी और करनी में बड़ा ही भारी अंतर है.
छोटी सी तकरार दिखाकर कहता युद्ध भयंकर है.
आतंकी हमलों पर कहता लोग हैं बेहद डरे हुए.
जैसे हैं सब कायर बेहद और हैं बेहद मरे हुए.

कहाँ बढ़ाता और मनोबल उल्टा और गिराता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



अब तो है मुँह मार रहा ये सत्ता के गलियारों में.
भोग रहा है सुरा-सुन्दरी होटल पंच सितारों में.
ख़बरों का धंधा करने में भूल गया मकसद अपना.
क्या था इसका ‘मिशन' और क्या था इसका स्वर्णिम सपना.

भ्रष्टों, हत्यारों संग मिल अब दूध मलाई खाता है,
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



मानवता भयकंपित है अब इसके काले कर्मों से.
लक्ष्मण रेखा लांघी इसने मुख मोड़ा सत्कर्मों से.
रंग-ढंग अब देख के इसका लगता कोई लफंगा है.
ये तो चिकना घड़ा है बिल्कुल ये तो निरा निहंगा है.

झूठे को ये सच्चा कहता सच को ये झुठलाता है. है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



आसमान पर है दिमाग धरती पर पाँव नहीं है.
देश-धर्म और जनता के प्रति अब वो भाव नहीं.
स्वयं का इतिहास कलंकित कर है बेच रहा अपना पानी.
अपनी लुटिया है डुबा रहा बछिया का ताऊ अभिमानी.

यों ही करते श्वान आचरण अंत काल जब आता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



‘ब्लेकमेलिंग' और जोड़-तोड़ करना अब इसका धंधा है.
खेल मीडिया खेल रहा जो खेल वो बेहद गंदा है.
नैतिकता की जला होलिका धर्म मार्ग से टरक गया है.
लोकतंत्र का चौथा खंभा लगता है अब दरक गया है.

लोकतंत्र की संप्रभुता को इसने जड़ा तमाचा है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



कल था जिसको सूरज बनना वह आज़ राहु है बन बैठा.
न्याय दिलानेवाला ही अब स्वयं सुबाहु है बन बैठा.
दीपक तले अंधेरा क्या दीपक अंधियारा कर बैठा.
जिससे थी उम्मीदें सारी वही किनारा कर बैठा.

जिससे था अमृत पाना वह हमको गरल पिलाता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.



अरे मीडियावालों सुन लो अब भी संभलो होश में आओ.
पहले स्वयं के भीतर झांको फिर औरों के दोष गिनाओ.
वर्ना लोगों की निगाह से तुम बिल्कुल गिर जाओगे.
अपने ही दुष्कर्मों से तुम इक दिन घिर जाओगे.

अपने कर्मों पर पीट-पीट सिर हर रावण पछताता है.
बेलगाम हो गया मीडिया सच को आँख दिखाता है.

उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'

Wednesday, February 10, 2016
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