इंसानियत को शर्मसार करके Poem by NADIR HASNAIN

इंसानियत को शर्मसार करके

इंसानियत को शर्मसार करके
बेबस को लाहक़ गिरफ़्तार करके

नफ़रत की दहलीज़ दहशत का साया
कहीं गोली मारी कहीं सर उड़ाया

लुटि माँ की ममता और राखी बहन की
हुई माँग सूनी सुहागन दुल्हन की

ये आलम ए इंसानियत कह रही है
के आदम की औलाद हरगिज़ नहीं है

वह ख़ूँख़ार वहशी है आतंक वादी
जल्लाद दानव लहू का है आदी

बेशर्म बहका रहा नौजवां को
दहला रहा है सारे जहाँ को

जज़्बात की वोह ज़हर घोलता है
ख़िलाफत का खुद को बशर बोलता है

ख़तरा है ज़ालिम से इस्लामियत को
मुहम्मद की उम्मत मुसलमानियत को

उलफ़्त मुहब्बत वहदानियत को
अमन व सकूँ और इंसानियत को

हरगिज़ नहीं है वोह ईमान वाला
वोह जल्लाद ज़ालिम क़हर ढाने वाला

इस्लाम है ज़िंदगानी मुहम्मद
मुसलमान की हैं निशानी मुहम्मद

चलो मिल के आतंक जड़ से मिटाएँ
के नादिर अमन की फिर शम्मा जलाएँ


: नादिर हसनैन

इंसानियत  को  शर्मसार करके
Thursday, November 19, 2015
Topic(s) of this poem: sorrow
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